गुड्डा गुड्डी का खेल तो कभी खेला नहीं,
पर मेरा भी एक सपना था,
कोई होगा जो मुझे आसमान पे रखेगा,
चाँद की कभी खाव्हिश ना थी,
सितारों को पाने की भी मेरी कोई चाह ना थी,
बस छोटा सा एक ख्वाब था,
ज़मीं पे दूर कही,
कोई अपना एक जहां हो,
मांगू न कुछ उस से,
बस मेरे लिए थोड़ा वक़्त उस के पास,
बस वही मेरे लिए बेहिसाब हो,
पर तुम क्या मुझे आँखों पे सजा के रखोगे,
खफा कर देते हो जो मुझे बात-बात पे,
भूल जाते हो हाल चाल पूछना जो शाम में,
देती हूँ हर बात पे जो तवज्जो तुमको,
और भुल जाती हूँ,
तुझ में रख के कहीं खुद को,
मासूमियत से जो हर बार,
बेवजह सॉरी बोल देती हूँ,
खुद का ही दिल दुखाने पर,
फिर छुप के रो देती हूँ
तुम देख नहीं पाते हो,
मेरी रोई इन आँखों को,
जान नहीं पाते हो,
न सोई मेरी रातों को,
तेरे संग होने को,
जब सब से लड़ जाती हूँ,
अच्छी खासी जिंदगी में,
खुद भूचाल मै ले आती हूँ,
तुम यूँ ही बिन सोचे शायद,
कुछ भी कह देते हो,
क्या बतलाऊ मै,
किस दौर से अकेले अकेले गुज़रती हूँ,
खुद के टूटे टुकड़ों को,
खुद उलझी ज़ज़्बातो को,
एक एक सुलझाकर मै,
फिर खुद को समेट लाती हूँ,
खुद से हार कर,
खुद ही जीत जाती हूँ,
नयी सुबह में,
फिर नयी कहानी बतलाती हूं,
कैसे रात के निपट अँधेरे में,
जी भर के रो जाती हूँ,
कैसे बतलाऊ मैं तुम को,
मैं क्या से क्या हर इंसान में देख जाती हूँ!!