पहले पहल आपको लगता है अकेलेपन आपको मार डेगा,
ऐसा लगता है जैसे यह अंदर से आपको खाए जा रहा है,
जैसे सब चले गए तो अकेले कैसे जियेंगे,
पर फिर धीरे धीरे अकेलेपन की आदत हो जाती है,
खुद में सुकून आने लगता है,
लोगों की भीड़ में जाने से कतराने लगते हैं,
अपने जैसे लोग न मिलें तो अकेला रहना पसंद करने लगते हैं,
खुद के साथ अकेलेपन में भी सुकून आने लगता है,
हम रोते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते हैं और सुनने वाला कोई नहीं होता और फिर बहुत सारी जीवन की सच्चाइयाँ समझने लगते हैं,
सब चीजों से वैराग्य होने लगता है जो भी उपरी है,
वो लोग जो सामने से अच्छे से बात करते हैं,
और पीठ पीछे जिंदगी को नरक बनाने में लगे रहते हैं,
वो लोग जो साथ बैठते हैं सिर्फ आपकी लाइफ की बातें लेने को,
और फिर लगता है बहुत कुछ सच नहीं है,
और बहुत कुछ बस यूं ही है,
धीरे धीरे छोड़ने लगते हैं,
लोगों को, जगह को, ऊर्जाओं को,
और हर उस चीज को जिससे दिल से जुड़ाव नहीं महसूस होता,
और फिर धीरे धीरे हम मौन होने लगते हैं,
सिर्फ जरूरत हो तब बोलने लगते हैं,
बेवजह के रिश्ते नहीं बनाते,
बेवजह खुद का मन सब के आगे नहीं खोलते,
और बेवजह कुछ भी जिंदगी में नहीं रखते,
और फिर दूसरों को बेवजह से लगने वाली हमारी जिंदगी हमें सुकून लगने लगती है,
और फिर बेवजह हम बस खुद से मतलब रखने लगते हैं
#Random thoughts# -Mamta-
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